Lekhika Ranchi

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सेवा सदन मुंशी प्रेम चंद


57

कार्तिक का महीना था। पद्मसिंह सुभद्रा को लेकर गंगा-स्नान कराने ले गए थे। लौटती बार वह अलईपुर की ओर से आ रहे थे। सुभद्रा गाड़ी की खिड़की से बाहर झांकती चली आती थी और सोचती थी कि यहाँ इस सन्नाटे में लोग कैसे रहते हैं। उनका मन कैसे लगता है। इतने में उसे एक सुंदर भवन दिखाई पड़ा, जिसके फाटक पर मोटे अक्षरों में लिखा था– सेवासदन।

सुभद्रा ने शर्माजी से पूछा– क्या यही सुमनबाई का सेवासदन है?

शर्माजी ने कुछ उदासीन भाव से कहा– हां।

वह पछता रहे थे कि इस रास्ते से क्यों आए? यह अब अवश्य ही इस आश्रम को देखेगी। मुझे भी जाना पड़ेगा, बुरे फंसे। शर्माजी ने अब तक एक बार भी सेवासदन का निरीक्षण नहीं किया था। गजानन्द ने कितनी ही बार चाहा कि उन्हें लाएं, पर वह कोई-न-कोई बहाना कर दिया करते थे। वह सब कुछ कर सकते थे, पर सुमन के सम्मुख आना उनके लिए कठिन था। उन्हें सुमन की वे बातें कभी न भूलती थीं, जो उसने कंगन देते समय पार्क में उनसे कहीं थीं। उस समय वह सुमन से इसलिए भागते थे कि उन्हें लज्जा आती थी। उनके चित्त से यह विचार कभी दूर न होता था कि वह स्त्री, जो इतनी साध्वी तथा सच्चरित्रा हो सकती है, केवल मेरे कुसंस्कारों के कारण कुमार्ग-गामिनी बनी– मैंने ही उसे कुएं में गिराया।

सुभद्रा ने कहा– जरा गाड़ी रोक लो, इसे देखूंगी।

पद्मसिंह– आज बहुत देर होगी, फिर कभी आ जाना।

सुभद्रा– साल भर से तो आ रही हूं, पर आज तक कभी न आ सकी। यहां से जाकर फिर न जाने कब फुर्सत हो?

पद्मसिंह– तुम आप ही नहीं आईं। कोई रोकता था?

सुभद्रा– भला, जब नहीं आई तब नहीं आई। अब तो आई हूं। अब क्यों नहीं चलते?

पद्मसिंह– चलने से मुझे इंकार थोड़े ही है, केवल देर हो जाने का भय है। नौ बजते होंगे।

सुभद्रा– यहां कौन बहुत देर लगेगी, दस मिनट मैं लौट आएंगे।

पद्मसिंह– तुम्हारी हठ करने की बुरी आदत है। कह दिया कि इस समय मुझे देर होगी, लेकिन मानती नहीं हो।

सुभद्रा– जरा घोड़े को तेज कर देना, कसर पूरी हो जाएगी।

पद्मसिंह– अच्छा तो तुम जाओ। अब से संध्या तक जब जी चाहे घर लौट आना। मैं चलता हूं। गाड़ी छोड़े जाता हूं। रास्ते में कोई सवारी किराए पर कर लूंगा।

सुभद्रा– तो इसकी क्या आवश्यकता है। तुम यहीं बैठे रहो, मैं अभी लौट आती हूं।

पद्मसिंह– (गाड़ी से उतरकर) मैं चलता हूं, तुम्हारा जब जी चाहे आना।

सुभद्रा इस हीले-हवाले का कारण समझ गई। उसने ‘जगत’ में कितनी ही बार ‘सेवासदन’ की प्रशंसा पढ़ी थी। पंडित प्रभाकर राव की इन दिनों सेवासदन पर बड़ी दया-दृष्टि थी। अतएव सुभद्रा को इस आश्रम से प्रेम-सा हो गया था और सुमन के प्रति उसके हृदय में भक्ति उत्पन्न हो गई थी। वह सुमन को इस नई अवस्था में देखना चाहती थी। उसको आश्चर्य होता था कि सुमन इतने नीचे गिरकर कैसे ऐसी विदुषी हो गई कि पत्रों में प्रशंसा उसकी छपती है। उसके जी में तो आया कि पंडितजी को खूब आड़े हाथों लेस, पर साईस खड़ा था, इसलिए कुछ न बोल सकी। गाड़ी से उतरकर आश्रम में दाखिल हुई।

वह ज्यों ही बरामदे में पहुंची कि एक स्त्री ने भीतर जाकर सुमन को उसके आने की सूचना दी और एक क्षण में सुभद्रा ने सुमन को आते देखा। वह उस केशहीना, आभूषण-विहीना सुमन को देखकर चकित हो गई। उसमें न वह कोमलता थी, न वह चपलता, न वह मुस्कराती हुई आंखें, न हंसते हुए होंठ। रूप-लावण्य की जगह पवित्रता की ज्योति झलक रही थी।

सुमन निकट आकर सुभद्रा के पैरों पर गिर पड़ी और सजल नयन होकर बोली– बहूजी, आज, मेरे धन्य भाग्य हैं कि आपको यहां देख रही हूं।

सुभद्रा की आंखें भर आई। उसने सुमन को उठाकर छाती से लगा लिया और गद्गद् स्वर में कहा– बाईजी, आने का तो बहुत जी चाहता था, पर आलस्यवश अब तक न आ सकी थी।

सुमन– शर्माजी भी हैं या आप अकेले ही आई हैं?

सुभद्रा– साथ तो थे, पर उन्हें देर हो गई थी, इसलिए वह दूसरी गाड़ी करके चले गए।

सुमन ने उदास होकर कहा– देर तो क्या होती थी, पर वह यहां आना ही नहीं चाहते। मेरा अभाग्य! दुख केवल यह है कि जिस आश्रम के वह स्वयं जन्मदाता है, उससे मेरे कारण उन्हें इतनी घृणा है। मेरी हृदय से अभिलाषा थी कि एक बार आप और वह दोनों यहां आते। आधी तो आज पूरी हुई, शेष भी कभी-न-कभी पूरी होगी ही। वह मेरे उद्धार का दिन होगा।

यह कहकर सुमन ने सुभद्रा को आश्रम दिखाना शुरू किया। भवन में पांच बड़े कमरे थे। पहले कमरे में लगभग तीस बालिकाएं बैठी हुई कुछ पढ़ रही थी। उनकी अवस्था बारह वर्ष से पंद्रह तक की थी। अध्यापिका ने सुभद्रा को देखते ही आकर उससे हाथ मिलाया। सुमन ने दोनों का परिचय कराया। सुभद्रा को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह महिला मिस्टर रुस्तम भाई बैरिस्टर की सुयोग्य पत्नी हैं। नित्य दो घंटे के लिए आश्रम में आकर इन युवतियों को पढ़ाया करती थीं।

दूसरे कमरे मे भी इतनी कन्याएं थीं। उनकी अवस्था आठ से लेकर बारह वर्ष तक थी। उनमें कोई कपड़े काटती थी, कोई सीती थी और कोई अपने पास वाली लड़की को चिकोटी काटती थी। यहां कोई अध्यापिका न थी। एक बूढ़ा दर्जी काम कर रहा था। सुमन ने कन्याओं के तैयार किए हुए कुर्ते, जाकेट आदि सुभद्रा को दिखाई।

तीसरे कमरे में पंद्रह-बीस छोटी-छोटी बालिकाएं थी, कोई पांच वर्ष से अधिक की थी। इनमें कोई गुड़िया खेलती थी, कोई दीवार पर लटकती हुई तस्वीरें देखती थी। सुमन आप ही इस कक्षा की अध्यापिका थी।

सुभद्रा यहां से सामने वाले बगीचे में आकर इन्हीं लड़कियों के लगाए हुए फूल-पत्ते देखने लगी। कन्याएं वहां आलू-गोभी की क्यारियों में पानी दे रही थीं। उन्होंने सुभद्रा को सुंदर फूलों का एक गुलदस्ता भेंट किया।

भोजनालय में कई कन्याएं बैठी भोजन कर रही थीं। सुमन ने सुभद्रा को इन कन्याओं के बनाए हुए अचार-मुरब्बे आदि दिखाए।

सुभद्रा को यहां का सुप्रबंध, शांति और कन्याओं का शील-स्वभाव देखकर बड़ा आनंद हुआ। उसने मन में सोचा, सुमन इतने बड़े आश्रम को अकेले कैसे चलाती होगी, मुझसे तो कभी न हो सकता। कोई लड़की मलिन या उदास नहीं दिखाई देती।

सुमन ने कहा– मैंने यह भार अपने ऊपर ले तो लिया, पर मुझमें संभालने की शक्ति नहीं है। लोग जो सलाह देते हैं, वही मेरा आधार है। आपको भी जो कुछ त्रुटि दिखाई दे, वह कृपा करके बता दीजिए, इससे मेरा उपकार होगा।

सुभद्रा ने हंसकर कहा– बाईजी, मुझे लज्जति न करो। मैंने तो जो कुछ देखा है, उसी से चकित हो रही हूं, तुम्हें सलाह क्या दूंगी? बस, इतना ही कह सकती हूं कि ऐसा अच्छा प्रबंध विधवा-आश्रम का भी नहीं है।

सुमन– आप संकोच कर रही हैं।

सुभद्रा– नहीं, सत्य कहती हूं। मैंने जैसा सुना था, इसे उससे बढ़कर पाया! हां, यह तो बताओ, इन बालिकाओं की माताएं इन्हें देखने आती हैं या नहीं?

सुमन– आती हैं, पर मैं यथासाध्य इस मेल-मिलाप को रोकती हूं।

सुभद्रा– अच्छा, इनका विवाह कहां होगा?

सुमन-यह तो टेढ़ी खीर है। हमारा कर्त्तव्य यह है कि इन कन्याओं को चतुर गृहिणी बनने के योग्य बना दें। उनका आदर समाज करेगा या नहीं, मैं नहीं कह सकती।

सुभद्रा– बैरिस्टर साहब की पत्नी को इस काम में बड़ा प्रेम है।

सुमन– यह कहिए कि आश्रम की स्वामिनी वही हैं। मैं तो केवल उनकी आज्ञाओं का पालन करती हूं।

सुभद्रा– क्या कहूं, मैं किसी योग्य नहीं, नहीं तो मैं भी यहां कुछ काम किया करती।

सुमन– आते-आते तो आप आज आई हैं, उस पर शर्माजी को नाराज करके। शर्माजी फिर इधर आने तक न देंगे।

सुभद्रा– नहीं। अब की इतवार को मैं उन्हें अवश्य खींच लाऊंगी। बस, मैं लड़कियों को पान लगाना और खाना सिखाया करूंगी।

सुमन– (हंसकर) इस काम में आप कितनी ही लड़कियों को अपने से भी निपुण पाएंगी।

इतने में दस लड़कियां सुंदर वस्त्र पहने हुए आईं और सुभद्रा के सामने खड़ी होकर मधुर स्वर में गाने लगीं :

हे जगत पिता, जगत प्रभु, मुझे अपना प्रेम और प्यार दे।

तेरी भक्ति में लगे मन मेरा, विषय कामना को बिसार दे।

सुभद्रा यह गीत सुनकर बहुत प्रसन्न हुई और लड़कियों को पांच रुपए इनाम दिया।

जब वह चलने लगी, तो सुमन ने करुण स्वर में कहा– मैं इसी रविवार को आपकी राह देखूंगी।

सुभद्रा– मैं अवश्य आऊंगी।

सुमन– शान्ता तो कुशल से है?

सुभद्रा– हां, पत्र आया था। सदन तो यहां नहीं आए?

सुमन– नहीं, पर दो रुपए मासिक चंदा भेज दिया करते हैं।

सुभद्रा– अब आप बैठिए, मुझे आज्ञा दीजिए।

सुमन– आपके आने से मैं कृतार्थ हो गई। आपकी भक्ति, आपका प्रेम, आपकी कार्यकुशलता, किस-किसकी बड़ाई करूं। आप वास्तव में स्त्री-समाज का श्रृंगार हैं। (सजल नेत्रों से) मैं तो अपने को आपकी दासी समझती हूं। जब तक जीऊंगी, आप लोगों का यश मानती रहूंगी। मेरी बांह पकड़ी और मुझे डूबने से बचा लिया। परमात्मा आपलोगों का सदैव कल्याण करें।

(समाप्त)

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